धर्मयुग की याद
पू वि प्र ने पिछले कुछ वर्षों में साहित्य और संस्कृति को लेकर कई कार्यक्रम आयोजित किये हैं, जिनमें धर्मयुग की याद कार्यक्रम भी रहा है। धर्मयुग की याद यानी मशहूर पत्रिका धर्मयुग के किये-धरे और उसके लोगों और उनके किये-धरे की याद। इस सिलसिले में धर्मयुग में सह संपादक रहे श्री मनमोहन सरल और मुख्य उप संपादक रहे श्री सुदीप का अभिनन्दन किया गया।
पेश है, २७ दिसंबर २०१४ को हुए पहले कार्यक्रम की यह एक रिपोर्ट --
कनुप्रिया ने किया कनुप्रिया का पाठ
``होंगे शीरीं-फरहाद, सोहनी महिवाल के किस्से, चित्रकार राजा रविवर्मा ने डॉ.धर्मवीर भारती और पुष्पा भारती को देखा होता; और कनुप्रिया पढ़ा होता तो इस सदी और आने वाली सदियों को कृष्ण और राधा का मुकम्मिल चेहरा मिल गया होता।''
शनिवार को मुुंबई विलपार्ले के संन्यास आश्रम सभागार में इन शब्दों के साथ धर्मयुग की याद कार्यक्रम की शुरुआत हुई तो सभागार में यादों का अद्भुत सिलसिला बन गया। 1960-61 से लेकर 1993-94 तक धर्मयुग देश की एक अनन्य सांस्कृतिक पत्रिका थी और इसने दो से ज्यादा पीढ़ियों को साहित्य, सुरुचि, सोच-समझ और संस्कृति का संस्कार दिया। कार्यक्रम का संदर्भ धर्मयुग में सहायक संपादक रहे श्री मनमोहन सरल के अमृत अभिनंदन का था। श्री सरल ने 80 साल पूरे किए हैं; और बरसों तक वे धर्मयुग में डॉ धर्मवीर भारती के दाहिने हाथ के रूप में काम करते रहे हैं।
कार्यक्रम की शुरुआत सुश्री पुष्पा भारती की मातृ पूजा से हुई। मंच को पुष्पा भारती, डोंगरी की प्रख्यात कवयित्री पद्मा सचदेव, ब्लिट्ज के संपादक रहे नंदकिशोर नौटियाल, नवभारत टाइम्स के संपादक रहे विश्वनाथ सचदेव, लेखिका अचला नागर, सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, कवि बुद्धिनाथ मिश्र और चित्रकार प्रभु जोशी ने सुशोभित किया। शनिवार को श्री मनमोहन सरल और ही छटा में थे। उनके मित्र प्रभु जोशी, उनका बहुत ही सुुंदर चित्र बनाकर लाए थे। इस चित्र का अनावरण पुष्पा भारती ने किया।
कार्यक्रम का संचालन धर्मयुग में उप संपादक रहे ओमप्रकाश ने किया। सबका स्वागत मुंबई मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष श्री सुशील व्यास ने किया। सभा को आशीर्वचन महामंडलेश्वर विश्वेश्वरानंद गिरि जी महाराज ने दिए। कार्यक्रम में धर्मयुग की समाजोन्मुखी, निष्ठावान, और चरित्रवान पत्रकारिता को याद किया गया। और सजग, कर्मठ और बहुविधि पत्रकारिता के लिए श्री मनमोहन सरल का भूरि-भूरि अभिनंदन किया गया।
धर्मयुग में डॉ भारती के साथ 27-28 सालों में और उसके बाद के 6-7 सालों में श्री गणेश मंत्री और श्री विश्वनाथ सचदेव के साथ जिन सहकर्मियों ने काम किया, उनके योगदान की भी खूब चर्चा हुई। श्री गणेश मंत्री, सतीश वर्मा, राजन गांधी, उदयन शर्मा, सुरेंद्र प्रताप सिंह, योगेंद्र कुमार लल्ला, जितेंद्र मित्तल, प्रेम कपूर, आलोक मेहरोत्रा ,रूमा सेन गुप्ता, हरिवंश, रवीन्द्र श्रीवास्तव, राममूर्ति, अनुराग चतुर्वेदी, अवध किशोर पाठक, सुनील श्रीवास्तव , ओमप्रकाश, नारायण दत्त, सुदर्शना द्विवेदी, शशि कपूर, टिल्लन रिछारिया, अवधेश व्यास, जयंती, अभिलाष अवस्थी, सुमन सरीन, कैलाश सेंगर, युगांक धीर, हरीश पाठक, सुनील मेहरोत्रा, आलोक श्रीवास्तव, संजय मासूम, विनीत शर्मा- आदि सभी के कामकाज और उनके पत्रकारीय योगदान को धर्मयुग परिवार और धर्मयुग के पाठकों और लेखकों ने खूब याद किया। इस अवसर पर पदमा सचदेव ने कहा, जैसे लता जी और उनकी गायकी है वैसे ही धर्मयुग और उसकी पत्रकारिता है। जैसे बहुत गायक हुए हैं लेकिन कोई लता मंगेशकर नहीं है, वैसे ही बहुत पत्रिकाएं निकली होंगी, लेकिन कोई धर्मयुग नहीं है।
कार्यक्रम की सबसे बड़ी उपलब्धि पुष्पा भारती द्वारा कनुप्रिया का पाठ करना रहा।
सभागार में उपस्थित तकरीबन सभी लोगों ने लेखकों को संबोधित डॉ. भारती के पोस्ट-कार्ड्स और छोटी-छोटी पर्चियों को याद किया, और याद किया कि धर्मयुग ने अपने लेखकों और पाठकों से किस तरह एक बहुत जीवंत रिश्ता बना रखा था। कई-कई लोग ऐसे थे, जो धर्मयुग में छपी अपनी रचनाओं की प्रति लेकर आए थे। कई-कई लेखकों ने धर्मयुग का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि धर्मयुग ने उनके लेखन को सजाया, संवारा और उन्हें आगे बढ़ने में मदद दी। इस अवसर पर कई संदेश भी मिले। सभी संदेश लगभग इस तरह के थे , जैसे कथाकार तेजेंद्र शर्मा का यह संदेश -
धर्मयुग से मेरा भी बहुत लम्बा रिश्ता रहा है। जब पहली कहानी धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी तो मान लिया था कि कहानीकार हो गया। दरअसल कहानी जब भेजी थी तो भारती जी ने अपनी क़लम से लिखे खत में कुछ तब्दीलियां करने की सलाह दी थीं। जो मैंने किया भी... फिर तो कहानियां छपती गईं। भारती जी, सरल जी, गणेश मंत्री जी, कुमार प्रशान्त, ओम प्रकाश , सुदर्शना जी, हरीश पाठक, सुनील, जयन्ती, कैलाश सेंगर, सुमन सरीन और बाद में विश्वनाथ जी सभी का स्नेह और अपनापन याद है। धर्मयुग एक अकेली ऐसी पत्रिका थी जो पीढ़ियों को संस्कार देती रही। मेरी बेटी दीप्ति के बचपन का अटूट हिस्सा थे ढब्बू जी।