दहेज और दिखावे के खिलाफ अभियान
दहेज और दिखावे के खिलाफ पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान द्वारा चलाये गए अभियान बहुत प्रभावशाली रहे हैं। इनमें कल्पनाशीलता भी खूब रही है। इनमें से से दो अभियान बानगी के लिए नीचे प्रस्तुत हैं-
अभियान 1
अपनी बेटी को परिचय दीजिए।
आपली मुलगी ची ओड़ख द्या।
आपणी दीकरी नी ओड़ख दियो।
किसी कागज पर अपनी बेटी का परिचय लिखें। उसे पांच बार पढ़ें। परिवार में किसी स्त्री को भी ऐसा करने को कहें। मित्रों-परिजनों में भी पांच लोगों को पढ़ायें। न तो खुद ही पचीस बार और पढ़ें।
---------------------------------दहेज और दिखावे के खिलाफ अगस्त, २०१३ की विलेपार्ले, मुंबई की बैठक में एक सवाल उठा -`` लोग बेटों का तो परिचय देते हैं, बेटियों का नहीं।''
क्यों? के कई जवाब थे। एक जवाब था कि बेटों को ही उत्तराधिकार मिलता है, वे ही पिता का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए उनका ही जिक्र किया जाता है।
एक दूसरा जवाब यह था कि बेटियों को लोग पढ़ा-लिखा तो रहे हैं, उन्हें घर से बाहर भी निकाल रहे हैं, पर उनकी सुरक्षा वगैरह को लेकर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं । हजारों साल से औरतों पर जो अत्याचार हुए हैं, उनकी जो लूट और खरीद-बेच हुई है, उसने सारी ही मानवता के सीने में डर का एक ग्लेशियर बैठा दिया है। केवल नाम और रूप, आकार और प्रकार बदला है, वह शोषण बाकी किसी न किसी रूप में चलता ही चला जा रहा है, इसलिए ग्लेशियर पिघलने का नाम ही नहीं लेता।
चकले चल रहे हैं, डांस बार चल रहे हैं, अकेले एशिया में ही साल में १० से १२ लाख लड़कियों की ह्यूमन ट्रैफिकिंग (खरीद-बेच) होती है। अरबों-खरबों डॉलर का कारोबार बन गया है यह। स्त्री की देह को सामने रख कर ही तरह-तरह के उत्पाद भी बनाये जा रहे हैं।
आटा और दाल और अखबार और पत्रिका बेचने के लिए भी औरत की ही देह बेची जा रही है। हर ओर से उसे सेक्स का साधन ही बनाये रखने के इंतजाम हैं। हर ओर से उसके शरीर पर ही नजर है। ग्लेशियर पिघले भी तो कैसे पिघले।
इसलिए कहीं बाल विवाह शुरू हो जाता है। कहीं घूंघट नीची से नीची होती चली जाती है। कहीं बुर्का ज्यादा से ज्यादा कसता चला जाता है। कहीं पाबंदियां, चारदीवारियां और बेड़ियां बढ़ती जाती हैं। हमारा सारा व्यवहार डर के उस ग्लेशियर के अधीन हो जाता है। इसलिए हम न चाहते हुए भी वह सब करते चलते हैं जो वह ग्लेशियर कहता है। कई बार सेक्सुअलिटी के बारे में हमारी अपनी समझ को भी वह ग्लेशियर बिगाड़ देता है। अनेक बार अनजाने ही हम भी वही दोहराने लगते हैं, जिसकी वजह से वह ग्लेशियर बना है। इस सबका मिला-जुला नतीजा यह हुआ है कि हमने औरत को बचाने-बचाने में ही उसे परिचय विहीन कर दिया है। उसका व्यक्तित्व खत्म कर दिया है। उसका आत्मविश्वास, उसकी ताकत तोड़ दी है। उसकी प्रतिकार और परिष्कार की शक्ति कमजोर कर दी है। इसलिए शोषण पर शोषण होता चल रहा है। इसलिए बेटी के पैदा होते ही बाप चेहरा लटका कर बैठ जाता है। और बेटी की सारी किलकारियों और हुलकारों को खत्म कर देता है।
पिघलेगा डर और बिगाड़ का यह ग्लेशियर तब, जब एक बड़ी रोशनी जला कर हम इस ग्लेशियर को पिघला देंगे।
वह रोशनी है-बेटी को परिचय दे दीजिए। नाम दे दीजिए। व्यक्तित्व दे दीजिए। विश्वास और साथ दे दीजिए।
तो कीजिए रोशनी—एक कागज पर लिखिए अपनी बेटी का परिचय। उसे पांच बार पढ़िए। घर-परिवार की किसी स्त्री को भी ऐसा ही करने को कहें। पांच परिजनों को भी पढ़ाइए। न पढ़ा सकें तो पचीस बार खुद ही और पढ़ें। और उसे जिस भी धर्मग्रंथ को मानते हैं आप, उसके साथ रख दीजिए।
(जो पिता नहीं हैं, वे परिवार की किसी और स्त्री, मां, बहन, ताई, बुआ, मामी, नानी किसी के भी बारे में लिखें, और ऊपर जैसा कहा गया, वैसा करें। स्त्री सदस्य हैं, तो खुद ही अपना परिचय लिख कर इस तरह पढ़ें और परिजनों को पढ़ायें। )
सप्ताह भर यह परिचय यज्ञ हुआ तो फिर साल में इसे तीन बार करने के बाद बेटी का परिचय बनने और उसे कहने में कोई रुकावट नहीं आयेगी। उसके अनेक संकट दूर हो जायेंगे। यह यज्ञ सपत्नीक किया जाये, तो इसके परिणाम और बढ़ जाते हैं। बहू के बारे में भी पढ़ा जाये, तो फिर तो पूरा परिवार ही आश्वस्त और विश्वस्त हो जाता है।
चाहें तो मान लें, ब्रह्मा ने इस यज्ञ को सनत्कुमारों को बताया था। उन्होंने इसे अनुसूया को पढ़ाया। ब्रह्मा, विष्णु और शिव के अपने शील की परीक्षा लेने आने पर अनुसूया ने केवल इस यज्ञ का स्मरण किया, और वे तीनों बाल रूप में आ गये। बच्चे बन गये। और अनुसूया त्रिदेवों की माता हुईं। और, ब्रह्मा के इस पुत्री यज्ञ को पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान ने लोक के लिए फिर से प्रकाशित किया।
अभियान 2
आइए, राजनेताओं को कहें—STOP. STOP
शादियों में शोभा बढ़ाने के लिए प्रभावशाली नेताओं, सामाजिक व्यक्तित्वों और लब्धप्रतिष्ठ महानुभावों को बुलाना आम बात हो गयी है। रिश्तेदारों के यहां निमंत्रण पहुंचे या न पहुंचे, पर इन प्रभावशाली लोगों के यहां सोर्स और पैरवी तक लगाकर निमंत्रण पहुंचाए जाते हैं, और उन्हें बुलाने की हर संभव कोशिश होती है। अपने-अपने स्तर पर छोटे-बड़े अमूमन सभी यही कर रहे हैं। अनेक बुलाये जाने वाले भी बुलाये जाने के लिए आमतौर पर सज-धज कर तैयार ही बैठे रहते हैं। उनके लिए भी शोभा बनने का यह सुनहरा मौका होता है। दूसरे लोग तो भले ही बाज आ जायें, पर अनेक राजनेता तो शादी-ब्याह में घूम-घूम कर निमंत्रण करने को अपने जनसंपर्क अभियान से जोड़ देते हैं।
शादी-ब्याह नेह का निमंत्रण है। अपने रिश्ते-नाते के, गांव-पुर के लोगों, परिजनों के बीच का समारोह। जो नेह ले न सके, जो नेह दे न सके, वह दूसरा कोई भी, इसमें बेवजह है, बेमतलब है।
किसी की भी ऐसी बेवजह और बेमतलब उपस्थिति लड़की के परिवार पर बोझ है, और समाज में औरतों की स्थिति को कमजोर करती है।
इसलिए ऐसे शोभा बनने वालों से कहें कि वे ऐसी किसी भी शादी में न जाएं, जहां से उनका कोई वास्ता, कोई नाता न हो। इस नाते और वास्ते को जांचने का बहुत आसान तरीका है- बुलाने वाले यह सवाल करना भले भूल जायें कि जिन्हें वे बुलाने जा रहे हैं, उन्होंने अपने यहां किसी समारोह में उन्हें बुलाया था क्या, या बुलायेंगे क्या? पर जाने वाले जिस समारोह में जा रहे हैं, जाने के पहले यह तो जांच ही सकते हैं कि अपने यहां होने वाले ऐसे किसी समारोह में उस व्यक्ति को वे बुलाएंगे क्या? उस व्यक्ति को आप बुला न सकें, उसकी इतनी जरूरत और अहमियत न हो, तो फिर उसके यहां जाना बेवजह और बेमतलब है।
काश! राजनीतिक दलों के अध्यक्ष अपने नेताओं से ऐसा कह सकते कि वे ऐसी किसी शादी-ब्याह में न जाएँ , जिनसे उनका कोई वास्तविक वास्ता न हो।
दिखावा लड़की के पिता पर कैसे बोझ—पढ़ें द हिंदू अखबार में छपी यह रपट--
UNFORTUNATE FAILURE
Pomp and show to the fore, blood and sweat beneath
VATHSALA JAYARAMAN
“My eldest daughter's marriage is settled. The bridegroom is a software engineer,” told my friend. Instead of jubilation, anxiety was writ large on his face.
On hearing the word wedding, what automatically comes to our mind is a majestic mandap set up with floral décor, a well-designed welcome board tastefully decorated, hundreds of women clad in Kanchipuram silks and wearing dazzling diamonds, the bride and the groom at their best attire beautifying the centre. All the guests are entertained with a sumptuous lunch/dinner along with a gift item too.
Behind all this pomp and show are the sweat and blood of the bride's parents. Thirty years ago, marriages were less expensive even with dowry. Nowadays, the bridegroom's parents boast themselves of not demanding a rupee as dowry, but the element is concealed in the guise of extra jewels, furniture, vehicle, etc. With the soaring prices of gold and silver and the rising cost of all food items, expenses for a traditional wedding run to lakhs.
For an ordinary government employee/executive at the retirement age, after purchasing a two-room flat and educating two or three children, it is a huge burden to celebrate the wedding as per the norms. Not to talk of those who have more daughters and aged parents to look after.
A MATTER OF PRESTIGE
Marriage celebration has become a matter of prestige. Elite and rich people set standards for the middle class to follow. The bridegroom's parents alone cannot be blamed for this. Many a time, the girls utilise the wedding as the opportunity to extract as much as possible from their parents. Instances are not uncommon where even a well-employed girl invests her entire earnings in a high-end flat and expects her middle class father to conduct the marriage in a manner deserving of her official status. Poor father has to mortgage the house, his only asset, to cope with the huge expenses. The mental agony sometimes leads him to the deathbed.
UNFORTUNATE FAILURE
Is such a gala wedding necessary at all at the cost of one's precious life? When are we going to realise that there are more vital issues than the gorgeous processions, mesmerising mehendi, petalled pathways, expensive interiors and extravagant dinners? Is everyone happy after the so-called enviable event? Even before the greenery of the festoons fades, arguments and counter-arguments over trivial issues creep in, resulting in unfortunate failure within a year.
INTROSPECTION
It is high time that young girls and boys gave serious thought to the ethics and values of the great institution of marriage and did some introspection on their social responsibility to maintain everlasting harmony notwithstanding certain struggles and conflicts normally associated with marriage. Marriage is no doubt a memorable event.
The event need not be a pomp and show marked by lavishness.
Even the regular rituals and celebrations in the presence of a limited number of guests will fill the ambience with festivity and make the occasion splendid, vibrant and colourful.
Brides and bridegrooms, insist on a simple wedding without any ostentation, although it is against the wishes of your parents. You are disregarding so many of their instructions. Let this be the most benevolent one.