गायक:
देव सभा में एक दिन हुई मंत्रणा बारम्बार।
धरती पर राजन्य को, देवलोक जिसका अधिकार।।.
देवलोक जिसका अधिकार।.
नट :
देखो प्रिय नटी, जरा घूंघट उठा कर देखो; चर्चा में उभरे एक-दो नाम, लेकिन देवसभा का अधिकारी तो होगा कोई महानुभाव। देखो, अब बोल रहे हैं ऋषिवर वशिष्ठ। कह रहे हैं- ``धरती पर इस समय तो एक ही राजा है, प्रजा जिसका गुणगान कर रही है। वह मेरा शिष्य इच्छवाकु नरेश राजा हरिश्चंद्र है। वह प्रजा वत्सल है। धर्म और नीति में वह सभी प्राणियों और समूचे जगत का, समूची मानवता का हित सोचता है। न्याय के विधान में हमेशा सच के साथ रहता है। उसकी कर्तव्यनिष्ठा बेमिसाल है, और सत्यवादी तो ऐसा है कि, बोलो बोलो लोक गायक जोर से बोलो, बोलो बोलो सूत और मागध , सत्यवादी तो ऐसा है कि सपने में भी कुछ बोल दे तो उस पर अडिग रहे।
गायक:
चन्द्र टरे सूरज टरे, टरे जगत व्यवहार |
पै दृढ़व्रत हरिश्चन्द्र को, टरे न सत्य विचार ||
टरे न सत्य विचार ||
( विश्वामित्र सोचने लगते हैं )
विश्वामित्र: ( स्वतः )
न-न, नहीं ; ( नकार में सिर हिलाते हैं। ) राजा रहा हूँ मैं। पांवों में पंक लग ही जाती है। कभी परिस्थितियां, कभी निजी स्वार्थ, कभी महत्वाकांक्षाएं, कभी क्रोध और अहंकार, शक्ति का अहसास ---अरे, कभी कभी तो देव स्वार्थ भी जग जाते हैं। सब तो अयोनिज नहीं होते पृथु की तरह कि कोई स्वार्थ ही न हों। नंदिनी को नहीं खींच कर ले जाने लगा मैं। व्यर्थ में ही मरवा दिए वशिष्ठ के कई पुत्रों को। श्वान का मांस तक खाना पड़ा है मुझे। नए ब्रह्माण्ड का नियोजन भी तो निष्प्रयोजन ही था।
( नारियल के झुण्ड से उठते हुए । कैमरा तारों के बीच नए ब्रह्माण्ड को दिखाता है। )
और फिर मेनका का वह प्रसंग !
( राजा रवि वर्मा की पेंटिंग से शुरू करके मेनका के कुछ चित्र। )
राजा हरिश्चंद्र राज छोड़ कर काशी जाते हुए
गायिका:
अविस्मरणीय है मेनका से प्रेम का वह प्रसंग। --वह ऋषि को प्रणाम करके उनके सामने क्रीड़ा करने लगी। उसी समय मरुत ने उसके चंद्रमा के समान श्वेत वस्त्र छीन लिये। उसके बाद वह , जैसे कि बहुत शर्म से, अपनी पोशाक को पकड़ने के लिए दौड़ी, और जैसे कि वह मरुत से बहुत नाराज थी। और उसने यह सब विश्वामित्र की आंखों के सामने किया जो अग्नि के समान ऊर्जा से संपन्न थे। और उन्होंने उसे उसी भाव में देखा। देखा कि वह निष्कलंक है। सुंदर है। शरीर पर उम्र का कोई निशान नहीं है। तब, ऋषियों के बीच वह बैल वासना से ग्रस्त हो गया और उसने संकेत दिया कि वह उसका साथ चाहता है। और उसने भी उसके निमंत्रण को स्वीकार किया। और फिर उन्होंने वहां एक-दूसरे के साथ काफी समय बिताया।
( मेनका के प्रेम अभिनय के कुछ दृश्य )
( तभी किसी पुरुष का एक लंबा आर्तनाद सुनायी देता है। )
( आकाश में लटका त्रिशंकु दिखाई देता है )
नटी:
हा हंत ! अरे वह कौन औंधे मुंह लटका है आकाश में।
ढकेला हुआ स्वर्ग से।
बह रही है जिसके मुंह से लिप्सा और लार।
और फूट रही कर्मनाशा की धार
छू ले कोई पानी जिसका, तो हो जाए
सभी शुभ कर्मों का नाश
नट:
अरे रे रे , ये तो त्रिशंकु हैं
जिन्हें भेजा था विश्वामित्र ने अपने तप से स्वर्ग
लेकिन बाहर ढकेल दिया देवराज इंद्र ने
ऋषि और देवता के बीच हुए द्वंद्व का यह परिणाम है।
विश्वामित्र: ( स्वतः )
इंद्र ने यही तो कहा था - इसे गुरु ने दिया है श्राप , इसलिए नहीं रहने दे सकते स्वर्ग में।
इन्हीं वशिष्ठ के पुत्रों ने तो दिया था त्रिशंकु को चांडाल होने का श्राप। मेरे ही तपोबल से रुका है वह आकाश में। उसे स्वर्ग में जगह नहीं मिली तो उसके बेटे को देव सभा के लिए दे रहे हैं बुलावा।
पश्चाताप है या फिर है कोई और ही प्रयोजन?
( घूम कर, जोर से ) नहीं , देवराज नहीं। लेनी होगी कठिन परीक्षा। सत्य साबित हुआ हरिश्चंद्र का यश तो दूंगा उसे हजार साल की तपस्या का पुण्य, और जो निकला गलत, तो दूंगा उसे ऐसा भीषण श्राप, कि जिसका कभी नहीं होगा मोचन।
नट और नटी:
लो देखो, शुरू भी हो गया विधना का खेल। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ चले गए १२ साल के लिए तपस्या करने ।
और, विश्वामित्र आ पहुंचे हरिश्चंद्र पुरी के पास। किया स्थापित अपना आश्रम। राजा भी आ पहुंचे उधर ही खेलते आखेट। अरे देखो , वह दुष्ट विघ्नराज आ बैठा राजा के भीतर। कर रहा है मुनिवर का अपमान।
लो, टूटा ध्यान। हो गए मुनि कुपित। भाग गया विघ्नराज। राजा को अब आया चेत। मांग रहे हैं बारंबार क्षमा।
दोनों : ( हाथ जोड़ कर)
क्षमा कर दो मुनिवर
क्षमा कर दो मुनिराज
क्षमा कर दो हे मुनीश्वर।
राजा का नहीं यह विघ्नराज का पाप।
(नया दृश्य उभरता है। राजा फिर अंदर की ओर घने जंगल में जा रहे हैं।)
नट और नटी:
लो यह भी देखो दुर्भाग्य। लौटना था राजमहल, लेकिन फिर चल पड़े घने जंगल की ओर।
करेंगे और आखेट। मुनिराज ने आगे बनाया खूब मनोरम सरोवर। सुन्दर बाग़-बगीचे, घनी छाँव।
पशु पंछी जहां सब कर रहे विश्राम। लो देखो, आयी नींद। सो गए राजा भी। मुंदी आँखों में उभर आया सपना।
अरे, सपने में देखो यह कौन आ गयी? अतीव सुंदरी है। देवलोक की कोई अप्सरा; प्रम्लोचा, वर्चा, पूर्वचित्ति, तिलोत्तमा या स्वयं उर्वशी ही। कह रही है--
गायिका
इन कपोलों की ललाई देखते हो?
और अधरों की हँसी यह कुंद-सी, जूही-कली-सी ?
गौर चम्पक-यष्टि-सी यह देह श्लथ पुष्पाभरण से,
स्वर्ण की प्रतिमा कला के स्वप्न-सांचे में ढली-सी ?
रूपसी नारी प्रकृति का चित्र है सबसे मनोहर
यह तुम्हारी कल्पना है,प्यार कर लो ।
याद आता है मदिर उल्लास में फूला हुआ वन
याद आते हैं तरंगित अंग के रोमांच, कम्पन;
स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख,
याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख ।
चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में ।
इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो।
यह तुम्हारी कल्पना है,प्यार कर लो ।
नट: कह रही है- बना लो रानी, नहीं तो दे दो राज-पाट ही ।
नटी: लो, मना कर दिया राजा ने। नहीं चाहिए साथ। कह दिया नहीं है उन्हें अधिकार अपना राज-पाट किसी नर्तकी पर लुटा देने का। लेकिन यह देखो, अब ब्राह्मण का वेश बनाये आ गए खुद मुनि विश्वामित्र महाराज। कह रहे- दान की अधिकारी नहीं सुलक्षणा, तो मुझे दो राज-पाट। सुयोग्य ब्राह्मण को उसका मुंह मांगा दान देना राजा का धर्म है।
नट: किंचित नहीं कोई संकोच। किंचित नहीं कोई रोष। लो देखो, राजा ने दे दिया सहर्ष अपना सब राज-पाट . ।
(फिर राज सभा का दृश्य।)